સોમવાર, 13 મે, 2013

जीने दो

मैंने दुनिया के लिए ये कविता लिखी है...

मुजे खुशियोंके साथ जीने दो,
मुजे गमसे दूर रेहने दो,
बहोत जी जिया हमने आपके लिए,
मुजे अपने लिए भी जीने दो.

हर बात तुम्हारी क्यों मानू ?
हर बार तुम्हे ही क्यों मानू ?
मरजी तुम्हारी बहोत मानी है,
अब मेरी मरजी से जीने दो.

तुम्हे मेरी कोई बात पसंद नहीं,
तुम्हे मेरा कोई गम भी नहीं,
तुम जो चाहे वो समजा करो,
मुजे मेरी दुनियामे रेहने दो.

दर्द तुमने मुजे कितने दिये ?
ज़ख्म तुमने मुजे कितने दिये ?
याद करके वो मामूली बात,
मुजे सिकवा तुमसे करने दो.

कुछ लोग मिले थे तुममें से,
कुछ लोग मिले है तुममे से,
हर बार मुजे यु घाव देके,
अब मरहम लगाना रेहने दो.

अब क्यों मुझसे लड़ते हो तुम ?
अब क्यों मुझसे डरते हो तुम ?
सच सुनने की तुम्हे आदत नहीं,
ये बाते दोहराना रेहने दो.

मेरी हर सांसको बांधा है,
हर धडकन को तुमने रोका है,
अब 'आनंद' को आखरी सांस,
तुम जी भरके बस लेने दो.